तेरी
आशिक़
नज़र
जब
मेरे
सिम्त
उठती
है
महशर बरपाती है मुझे तबाह करती है
महफ़िल
में
तेरी
ग़ज़ल
और
उसके
जलवे
दिल मचल उठता है जुबां वाह वाह करती है
जवानी
कब,
कहां
और
किसकी
सुनती
है
नकाम मुहब्बत हार कर मशवरा करती है
दरख्तों
के
साये
में
बैठ
जवां
दिल
धड़कते
है
मुहब्बत सिर पर सवार हो, कहां परवाह करती है
आरजुओं
का
क्या,
मचलना
काम
है
उनका
कैसे
आराम
पाऊं
ये
तुमसे
सलाह
करनी
है
- अमित
-
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